शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

वे पाणी मुलतान गया

वै पाणी मुलतान गया।जाण्या अर अणजाण गया,
बूढ़ा बाळ जवान गया।

कुछ बेली समसाण गया,
कोई कबरिस्तान गया।

पैल्यां तो सामान गया,
पाछा सैं महमान गया।


ईं को निकळ्यो योही सार,
वै पाणी मुलतान गया।

दाता बलि, दधीच हरिचन्द,
वै दानी, वै दान गया।

नहिं आया ’मे का मिजमान,
बादळ तंबू ताण गया।

कुण कितना पाणी कै बीच,
काम पड्यो जद जाण गया।

नैंण कटार अनोखी मार,
प्राण बच्या, ईमान गया।

अपणी संस्कृति रही अटूट,
मिसर, रोम, यूनान गया।

हठयोगी अर संत महंत,
बादषाह सुलतान गया।

हुयौ ‘बिहारी’ दंतविहीण,
काथा, चूना, पान गया।

बोली इमरत

बोली इमरत बोली ज्हैर।

सींचै चाये आठूं फैर।
फूलै नहिं पीपळ-अर कैर।
कींयां निभै बताओ आप,
समदर बीच मगर सैं बैर।
बसै कसायां बीच, मनाय,
बकराकी मां कद तक खैर।
यूं तारा दीखै छै रात,
विपदा मै धोळै दोफैर।
मौत गादड़ा की जद आय,
भाग्यौ आवै सामौ स्हैर।,
बगत पड्यां जो आय न काम,
वंा अपणां सैं चोखा गैर।
आवै-जावै रीता हाथ,
कुण ल्यावै ले जावै लैर।
यार ‘बिहारी’ मीठो बोल,
बोली इमरत बोली ज्हैर।
बिहारी शरण पारीक

सरस रस गागर


सरस रस गागर
श्री राधासरस विहारिणै नमः

          पद  पंकज श्री  सरस के, वंदनीय  नमनीय ।
 पद रचना श्री सरस की, मृदु, मंजुल कमनीय ।।

गुलाबी नगरी जैपुर का सुभाष चैक सैं पैलो रस्तो छै-‘पानां को दरीबो’। दरीबो अर्थात पान पत्तां की बिक्री-खरीद को स्थान। म्हाराजा सवाई जयसिंह का मुसायब विद्याधर का नियोजित जैपुर मँ या ठौर कदे पान पत्तां की मण्डी रही होली पण अब तो पाँच चैरावंा तलक कुल पाँच दुकान भी पनवाड्यां की नहीं छै। पान पत्ता, सुपारी सुंघणी को सब कारोबार अब रामगंज बजार की थोड़ी घणी दुकानां मँ होय छै। पण पानां को दरीबो अब भी नामजादीक छै, बीच बस्ती मँ निर्मित श्री सरस निकुँज धाम की विसाल अट्टालिका की वजै सूं, जठै रात दिन भक्तिगान अर संगीत की सुर लहर्यां प्रवाहित होती रवै छै।
ऊँचा स्तर का भक्त कवि महाराज सरस माधुरी शरण जी ईं श्री सरस निकुँज मँ नवीन ठाकुर कुंज की थरपना बैषाख कृष्णा अमावस संवत 1981 विक्रमी कै दिन करी। बैषाख कृष्णा अमावस वांका परम आराध्य, श्रीमद्भागवत महापुराण का गायक श्री शुक मुनिराज को जयंती दिवस भी छै। वेद व्यास द्वैपायन का सपूत आचार्य श्री शुकदेव मुनिराज का नाम पर ई ईं अध्यात्म पंथ को नाम श्री षुक सम्प्रदाय पड्यो। सगुण भक्तिमार्ग का श्री कृष्णानुरागी वैष्णवां की हार्दिक आस्था अर प्रबल श्रद्धा को ठिकाणो छै ‘श्री सरस निकुँज’। चिन्मय रस सरूप श्री कृष्ण को दिव्य श्री विग्रह अठै बिराजबा सूं श्री सरस निकुँज दिव्य अणु परमाणु सूं मण्डित रवै छै। अठै श्री राधाकृष्ण का उपासक  भक्त भ्रमर रात दिन नाम को गुंजार करै छै। बरस भर होता रैबाळा परब-उच्छबां मँ हिस्सादारी करता दूरा-दूरा सूं सम्प्रदाय का अनुयायी अठै आता रवै छै।
सरस माधुरी शरणजी को जनम हुयौ मध्य प्रदेस का मन्दसोर मँ। पालण-पोषण हुयौ अलवर जिला का बहादुर पुर मँ अर रचना-स्थल, कर्म-स्थली छी जैपुर। जैपुर राज का गिराई (पुलिस) महकमा माँय तैनात रह्या। वकालत करी अर आचार्य श्री षुकदेव अर अलवर का डहरा गाँव मँ जन्म्या आचार्य श्री श्यामचरण दास जी की सम्प्रदाय का अनुयायी रह्या। सेव्य ठाकुर श्री राधा सरस बिहारी जी की सेवा माँय गोपीभाव मँ निमग्न हुया नित्य निकुँज की मानसी सेवा की साधना करता रह्या। नाटक, पद, लीला को सिरजण कर्यौ अर गज़ल, माझ, कवित्त, सवैया, दूहा, कुण्डली, छप्पय, रोला, चैपाई आद सगळा छन्दां माँय रचना करी।
स्वयं सरस माधुरी जी अपणा व्यक्तित्व अर आस्था कै विषै माँय एक छन्द की दो पंक्तियां मँ लिख्यौ-
‘सिरी तिलक, गळ तुळसी माळा, पीताम्बर बर बानो।
सरस माधुरी स्याम राधिका, तिनके हाथ बिकानो।।’
रामचरित मानस का बालकाण्ड का आरम्भ मँ गोस्वामीजी दो न्यारी-न्यारी चौपायां मँ लिख गया-
‘भनिति विचित्र सुकवि कृत जोऊ। रामनाम बिनु सोह न सोऊ।।’
साहित्य को सिरजण करबाळा विद्वान अपणी रचना माँय जो संसारी जनां को गुणगान करै तो वाणी म्हाराणी अपणौ माथो धूण‘र पिछतावै। ‘हाय, अस्या घोर संसारी नै मैं प्रतिभा को धणी क्यूं बणायो।’ वाणी की सारथकता तो तदी छै जद छुद्र संसारी लोगां का किरत बखाण की ठौर अध्यात्म विषै पर साहित्य सिरज्यौ जाय।
‘कीन्हें प्राकृत जन गुणगाना। सिर धुनि गिरा लगति पछताना।।
सरस माधुरी शरणजी ईं सिद्धान्त को अच्छर-अच्छर निभाव कर्यौ। उर्दू, ब्रजवाणी, खड़ीबोली अर राजस्थानी माँय विपुल साहित्य रच्यौ। वांकी पद्य रचना श्री सरस सागर नाम सूं तीन भागां मँाय और भी कुछ ग्रंथां सहित प्रकाषित हुई पण वांकी गौरवषाली लेखनी तुलसी दासजी द्वारा थरपी गई ईं विषै की मर्यादा को कदेई उल्लंघन नहीं कर्यौ। अपणा इष्ट ठाकुर श्री राधा सरस बिहारीजी, सम्प्रदाय का आचार्यां का गुणानवाद अर, श्री राघवेन्द्र सरकार, श्री गौरांग महाप्रभु, स्वामी दादू दयाल आद की जनम बधायां तथा इस्याई अन्य वण्र्य विषयां कै सिवाय वै आपकी महताऊ कलम की नोंक स्याही माँय नहीं डुबोई। अठै तांईं कै वै अपणी वाणी का आरम्भ मँ औपचारिक विनायक-वन्दना अक सुरसती-सिमरण भी नहीं कर्या। आं की ठौर लिख्यौ-
‘श्री गुरु सबविधि पूरण काम।
चार पदारथ देत दयानिधि, दानी दम्पति नाम।
रसिकन को दें पे्रम सुधारस, निज वृन्दाबन धाम।
‘सरस माधुरी’ कृपा गुरुन की, दरसे श्यामा श्याम।‘
समालोचना की दीठ सूं सरस माधुरी षरणजी का काव्य को हाल तक विषेष मूल्यांकन नहीं हुयो। ग्रंथां की प्रस्तावना माँय तत्कालीन मूर्धन्य कतिपय विद्वान क्यूं लिख्यौ तो क्यूं वां का अनुयायी भक्तजन श्रद्धा विगलित हुया भौत थोड़ो लिख्यौ पण अनेक भासा मँ तरंगित वां की काव्य मन्दाकिनी माँय ज्यौ सनान कर्यौ वो परमपावन सात्विक भावां की लहर्यां माँय उज्जवल सिणगार रस मँ सराबोर हुयौ। देस-परदेस का खूणां-खूणां मँ विराज्या रसिकां वास्तै ईं आलेख माँय चनेक छाँट उछाळी गई छै-अस्तु-
सारा म्हैल माँय फूलां की सजावट छै। फूलां का थांबा, फूलां की तिबारी, कळष कंगूरा फूलां सूं मंढ्योड़ा, नैंणां नै तिरपत करै। फूलां का ई गादी तकिया, पड़दा, पिछवाई। फूलां का मण्डप, चन्दोवा, छाजा, गोखा, लटकण अर फूलां की ई छावण। प्रिया प्रीतम का चन्द्रिका मुकट, बाजूबन्द, कंगण सब फूलां का। गळा मँ सुरभित फूलां का हार। बंसी पर फूल, प्रियाजी का सीसफूल मै तो पैली सूं ई फूल नाम धर्यौ छै। सेज पुष्पां की, जळझारी माँय केवड़ा को सुवासित जळ अर बीं को गळो भी फूल माळा सूं अच्छादित। कोई सखी फूलां की पूतळी बणी फूली-फूली निरत करै; कोई पुष्प मंडित साज बजावै अर अनेक सखी-सहेली अनवरत फूलां की बौछारां बरसावै‘क उच्छब मण्डप को सगळो आँगणो फूलां सैं पट जावै। जुगल सरकार सागै नरतक्यां निरत करै तो वांका औढ़णा-लहँगा फूल-फूल जावै अर सरस माधुरीजी की रचना नै रागिणी आप ई मूर्तिमान हुई राग माँड मँ गावै-
ए मा ए, राधेस्याम सुजान फूल-तन भूषण साजै ए।
फूल महल मँ राजै दम्पति, सखियन जीवन प्राण।
फूल रही फुलवारी सनमुख, अति सोभा की खान।
                     मनौं रितुराज विराजै ए।

पावस रुत की हरियाळी मावस आगई। तन-मन सनेह सूं सराबोर हुया च्यारूँ मेर हरियाळी-ई-हरियाळी। पुरवाई चालै, मंदरी फुहारां बरस-बरस असल मँ ई जड़-चेतन  नै रसमय बणा दे छै। आँबर मँ काळी घटा ऊमड़ै घूमड़ै। मोर चकोर बोल रह्या। आज सिंजारो; काल श्रावणी तीज। सरस माधुरी शरण जी का ठाकुर श्री राधा सरस बिहारी जी अपणा ई स्वरूप श्री राधा गोविंद की राजधानी जैपुर माँय बिराजै। राजस्थान माँय बस्या छै तो सगळा तीज तिंवार राजस्थान की परम्परा मुजब ई मनायां सरै।
‘देखो री, सिंजारो प्यारो अति सज्यौ।
सज्यौ री स्यामा जू के अंग।’
राधा म्हाराणी नख सूं षिख सिणगार कर्या छै। कर-कँवल, पद पंकज मँ मैंदी का माँडणा। माथा पर सीसफूल, चंद्रिका। ललाट पर टीडीभळको आंगळ्यां मँ बींटी, छल्ला मंूदड़ी बंक भृकुटी, आँख माँय अंजन, नासिका मँ नथ, कमर पर बळ खाती नागण सी बेणी। हिया पर रतन-हार। मनमोवणी मुळक ज्यौ रति कामदेव की छवि नै भी फीकी कर दे। श्री राधा अपणा प्रियतम नै अरपित करबा वास्तेै अपणा हाथां सूं पान का बिडला त्यार करै अर समाज की अष्ट सखी को गायण होय-
‘‘सलौनी लागै आज सिंजारा री रैण।
मदन मोहन म्हैलां मँ आसी, अति सुन्दर सुख दैण।
उठ आदर कर कण्ठ लगावां, छबि निरखां भर नैण।
रंगभीणी सेजां रंग माणां, तन मन  उपजै चैन।’’
सिंजारो फेर चैत मास मँ आसी। हाल तो ‘तीज तिवांरां बावड़ी, ले डूबी गणगौर’’ कै मुजब तिवांरां को सिरी गणेस छै। सरस माधुरी जी का ठाकुर दम्पति भी तीज को तिवांर मनावै-
‘‘परम प्यारौ तीजां रो त्यौंहार।
हिलमिल हींदो घालां हेली सघन कदम की डार।
सरस बिहारी झमक झुलावां, गावां राग मलार।’’
फेर सब सखी परिकर नै तीज की सवारी देखबा को चाव होय-
‘‘सहेल्यौं म्हारी निरखो नै तीज पियारी।
सज सिणगार पहर पट भूषण, हिलमिल चलस्यां सारी।
अचल सुहाग भाग दिन दूणौं, पावां रीझ अपारी।
रंग हिंडोरै रंग सूं झूलां, संग सहेल्यां सारी।
‘सरस माधुरी सावण सरसै, घन बरसै जलधारी।’’
ठाकुर श्री सरस बिहारी जी प्रियाजी का रंग म्हैलां मँ पधार्या। मिजमानी मनवारां कबूली-
      ‘‘आया छै म्हां कै सरस बिहारी पावणा।
नाना विध पकवान मिठाई, रुचि-रुचि भोग लगावणा।
अचवन कर आरोगो बीरी, लागो परम सुहावणा।
‘सरस माधुरी’ सेजां पोढ़ो, रंग रस मौज मनावणा।
सावण-भादवा का हरियल दिनां मँ बरसाना की गोपी-ग्वालणां नन्दगांव का गबरू जवान गुवाळ गोपाल नै याद करै। गहवर बन, ललिता कुण्ड, साँकरी खोर अर मोरकुटी यादां माँय आय डेरा कर ले अर सरस माधुरी शरणजी को कल्पनासील मन झट सूं पद की रचना करदे-
‘‘हो जी हो म्हारा कुंज बिहारी, बरसाना का बागां मँ बोलै छै मोर।
तोता मैना और पपैया कोयल कर रहि शोर।
फूल रही फुलवारी क्यारी, गुंजत हैं जहं भांैर।’’
कीर, कोयल, मैना अर पपैया शोर मचावै। फूली-फूली फूलबाड्यां माँय मधुप गुंजार करै। गहवरबन की भाँत-भाँत की बेलड्यां माँय सारस हँस अर चकोर बिचरै। ललता कुण्ड घणांै सोवणो जठै पाणी की ल्हैरां उछाळा लेवै। साँकरी खोर जिस्या रमणीक स्थल पर रासेस्वरी राधिका सहेल्यां सागै रम रही छै। ’हे श्याम सुन्दर आप इण ठौरां माँऊ कोई सी ठौर पधारो अर बठै नहीं आओ तो मोर कुटी मँ विराज‘र दरसण द्यो।’
असल मँाय भक्त कवि सरस माधुरी शरणजी श्री राधाकृष्ण की नित्त निकुँज लीला का उपासक रह्या। शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य अर श्रृंगार भावां कै रूप मँ चिन्तकगण भक्ति का भेद कर्या। पैलड़ी च्यार विध की उपासना माँय भक्त को आपको भी स्वारथ होय छै पण माधुर्य भाव की भक्ति आं सब सूं निराळी अर अनोखी मानी जाय। माधुर्य भक्ति माँय केवल आनन्द स्वरूप दम्पति को विषुद्ध तत्सुखमयी पे्रम विलास होय छै। ईं माधुर्य नै ई उन्नत निकुँज रस, नित्त लीला अर वृन्दाबन धाम रस का नाम सूं भक्त कविगण गायौ छै। स्वयं भक्त की ईं रस माँय न कोई उपासना न कोई आराधना। भक्त नै खुद की खातर क्र्यूं इं नहीं चाये। आराध्य की सेवकाई मँ विसवास राखै। सरस माधुरी जी का सेव्य ठाकुर्र इं माधुर्य रस का पुंजीभूत स्वरूप, नित्त नवीन उन्नति किषोर श्री राधा सरस बिहारी जी की जोड़ी छै। न एकला लाल जी अर न एकली लडै़ती बां का उपास्य रह्या। ईं जोड़ी को परस्पर सुख ई बां को उपासना-रस रह्यौ। ज्यूं दौन्यूं नैंणा मांय कुणसी आँख को ज्यादा महत्व; दाँई अर बाँई आँख समान रूप सूं प्रिय। आदमी कोई सा नेत्र नै नहीं गमाणौ चावै।
ठाकुरजी की ब्रज अर निकुँज दोन्यूं लीला ई शुद्ध उज्ज्वळ प्रेम की सुभाविक लीला छै। फरक इतनो ई बतायो‘क ब्रजलीला माँय लालजी विषय अर प्रिया जी आश्रय छै। अर निकुँज वन माँय प्रियाजी विषय अर लालजी आश्रय होय छै। जिसी लीला उस्यौ ई सखा सखी को परिकर अर उस्यौ ई धाम। असल माँय दोन्यूं तरंै की लीला ई गुणां सूं अतीत अर तर्कां सूं परै छै।
पाँच दिनां पैल्यां दसरावो अर पन्द्रा दिनां पाछै दीवाळी। सरस निकुँज माँय दोन्यू उच्छब ई जोरदार ढंग सूं मनाया जावै छै। आँ कै बिचै ई आवै छै- ‘पून्यू तो आसोजी पून्यू’ अर्थात् शरद् पूर्णिमा। महारास रचाबा को महताऊ दिवस। श्रीमद्भागवत महापुराण को दषम स्कन्ध सारा रस -रहस्य को सार तत्व छै। श्री कृष्णानुरागी वैष्णवां को परम आधार छै। रास पंचाध्यायी मँ रासलीला को आरंभ, श्रीकृष्ण को अन्तरधान होबो, ब्रज वधुवां की बिरह दसा, गोपिका गीत अर रासेष्वर को फेरूं परगट हो‘र गोप ललनावां नै तसल्ली देणौ। या ई तो छै  रास पंचाध्यायी। अष्टछाप का कवि नन्ददास ईं पंचाध्यायी नै ब्रजवाणी माँय लिखी, सूरदास जी पदां मँ सार लिख्यौ अर खड़ी बोली, राजस्थानी का मोकळा कवि अपणी-अपणी मति मुजब लिखी। सरस माधुरी शरणजी श्री कृष्ण का वेणुवादन अर रास सम्बन्धी और-और लीलावां पर खड़ी बोली अर ब्रजवाणी माँय सौ कै नेड़ै पद लिख्या। जैपुरी गाळी की धुन मँ बंध्यौ पद बखाण जोग लागै छै-
‘‘मोहन बांसुरी बजावै, सुणो सब नागरी ए।
तानां मीठी-मीठी गावै, थाँ नै ले-ले नाम बुलावै।
रसियो बन मँ रास रचावै, रूप उजागरी ए।
दियौ जमना हाता, बर म्हाँ नै, मिलस्यां सरद रैन मँ थाँ नै।
चालौ सगळी छानै-छानै लैराँ लागरी ए।
सुणल्यौ सरस माधुरी बात, धन-धन -धन-धन छै या रात ।
पुलकित प्रेम माँय छै गात, गावौ रागरी ए।
सरस माधुरी शरण जी का भक्ति काव्य संसार की अनोखी रचना छै- बना बनी गाळ्यां अर सीठणा। अष्टयाम लीला उच्छब माँय श्री प्रिया जी का परिकर की अष्ट सहेली, ललिता, विषाखा, चित्रा, श्रीदेवी, तुंगविद्या, रंगदेवी, इन्दुलेखा अर चम्पकलता को मनोरथ हुयो‘क श्री प्रिया-प्रीतम को ब्याव उच्छव विनोद मनायो जाय। सगळा सरंजाम भेळा कर्या। तोरण थांम चँवरी कांकण डोरा लता पत्ता पत्र पुष्प, बाँदरवाळ यथा स्थान सोभा पाई। प्रिया-प्रीतम की भाँवरी (फेरां की रस्म) हुई अर वर-वधूका रूप मांय विराज्या ठाकुर जी कै सामै समाज करबाळां का गायण वास्तै सरस माधुरी शरण जी पद रचना करी। नीचै दियोड़ा दोन्यूं विलक्षण पदां को आधार राग विलम्बित मांड ई छै। ईं राग की सिरजणा भी राजस्थान मांय ई हुई अर अठै ईं राग नै गाबाळा श्रेष्ठ गायक-गायिका हुया।
बना-
सैंयो ए म्हारी, नन्द नन्दन ब्रजचन्द बनो म्हांने बाळौ लागै ए।
सीस सेवरो सुन्दर सोवै कलंगी झोकादार।
कानन कुण्डल जगमग ज्योती, जिनकी अजब बहार,
                              निरख नैंणा अनुरागै ए।
नख-सिख सोहन विष्व विमोहन सखियन जीवन-प्राण।
‘सरस माधुरी’ मगन हुईं सब, लखि प्रीतम रसखान।
                        विरह दुख सबही भागै ए।
नया नकोर जरी गोटा का बेस मांय सजी अवगुंठनवती श्री राधाजी, वर रूप मँ विराज्या श्री कृष्ण कै पाष्र्व मांय विराजी गायन सुण‘र जाणै आप खुद ई अपना राषि-राषि रूप  पै मुगध हुई-
बनी-
बनी म्हांनैं प्यारी लागै ए, ए माए कीरत राजकुवांरि बनी म्हांनै........
भानराय की लाड़ली जी, सखियन की सरदार।
श्रीदामा की भैंण छै जी, जीवण प्राणाधार। बनी म्हांनै................
धन्य मुहूरत धन घड़ी जी, धन तिथि अर धन वार।
भांवरि होवै जुगल की जी, प्रगटै पे्रम अपार। बनी म्हांनै........
कुंज महल निज टहल की जी, प्रापत होय इनाम।
‘सरस माधुरी’ म्हैल मँ जी, सेवै श्यामा-ष्याम। बनी म्हांनै ........
भाव कोई सो होय, रस किस्यौ भी होय, नित्त निकुंज लीला का गायक अपणा इष्ट का सुख मांय ही आनन्द पावै। इस्या अनुरागी जनां को बखाण करता ई श्रीमद्भागवत कथा का सिरजक वेदव्यासजी श्री कृष्ण का स्वयं का मुखारविन्द सैं उद्धव जी ने खवायौ-
‘‘उद्धव जी!संसार नै तो म्हारौ वो भगत ई पावन करै छै जीं की वाणी गदगद हो जाय। जीं को चित्त (बरफ ज्यूं) पिघळ जाय। ज्यो म्हारा हेत मँ कदे रोवै, कदे हँसै अर लाज -हया त्याग‘र कदे ऊँचा सुरां मँ गावै। (अपणी मौज माँय उछळै-कूदै) निरत करै।’’
सरस माधुरी शरण जी की जीवनी का लिखारां मुजब उपरोक्त सगळा लक्षणं वां का चरित अर दिनचर्या का सुभाविक अंग हो गया छा। आप खुद राग-रागनी अर सुरांका जाणकार होबा सूं समाज माँय तानपूरो ले‘र खुद गाता गाता भावां माँय गोता लगाता। खुद रोता अर श्रोता मण्डली का हिया विगलित कर‘र वां नैं भी प्रेम विरह का सागर माँय डुबकी लगवाता। नित्त बिहांर करबाळी श्याम सुन्दर अर श्री राधा की जोड़ी वास्तै सरस माधुरी शरण जी लिख्यौ छै असी जोड़ी त्रिभुवन माँय हेर्यां भी नहीं मिलै-
‘‘सलोणा लागै नवल किषोर किषोरी।
सुन्दर ष्याम काम मद मोचन, सुमुखि सुलोचनि गोरी।’’
त्रिभुवन पति, ब्रजेष्वर हुया ब्याव मण्डप माँय बृषभान जी का रावळा की लुगायां सूं गाळ्यां सुणै-
‘बनाजी थांनै गाळी रंगीली गावां।
भानकुवँरि भरतार भला थे, लख लोचन सुख पावां।
जसमत समधण जस की पूरी, ज्यां को सुजस सुणावां।
वा गोरी थे स्याम प्रगट हुया, समझ सोच सरमावां।‘

‘बनाजी, थांको भाग जाग्यायो राधाजी कै साथ फेरा पडबा सैं थां पर लाग्यो दोस दूर हो गयो। राषि-राषि रूप की धिराणी राधाजी का चरणां मँ थे अनुराग राखज्यो।‘
प्रियाजी का रंग म्हैल मँ बिराज्या ठाकुर श्री सरस बिहारी जी ऊँघता अळसाबा लाग्या। जंभाई आय। कँवळ नैंण मुँद-मुँद जावै। श्री अंग षिथिल हो रह्या। या दसा देखता प्रियाजी मुळकै। अपणी भावदीठ सैं या लीला देखता सरस माधुरी सरण जी को प्रेम पग्यो चित लेखनी नै पद लिखबा को निर्देस दियो-
‘‘बनाजी थांका नैंणा छै रतनारा।
झपकै खुलै नींद बस पल-पल, लागै छै अति प्यारा।
रंग अनंग भर्यौ तिण मांईं, आळस घूम घुमारा।
‘सरस माधुरी’ रस मँ छाक्या, प्रेम माँय मतवारा।’’
भविष्य पुराण खोल‘र देखो। हर तिथि नै कोई न कोई परब, पूजा, तिवांर कै उच्छब। राजस्थान जूना राजा रजवाड़ां को मुलक। सातबार, नौ तिवांर को देस। परम्परा कै मुजब सगळा लोग तिवांर मानै-मनावै पण भक्तां को तो सरबस ई आराध्य नै समरपित। वार-तिवांर, आमोद प्रमोद सब ठाकुर जी का श्री विग्रह कै निमित्त वांकी हाजरी बजाताँ ही बीतै। स्याळा का दिनां मँ पौष खीचड़ा, दसरावा दीवाळी सबका न्यारा-न्यारा लाड़। दीवाळी पाछै, अन्नकूट का बृहद आयोजन! सरस माधुरी शरण जी न्यारी-न्यारी भाषावां मँ पद रचना कर‘र ठाकुर जी नै रिझाया, लाड़-लड़ाया। बसन्त का रहस्यवादी गीत लिख्या तो होळी का लिख्या रस-कळस छळकाता।
फागणिया पोसाक धारण कर्यां ठाकुर श्री राधा सरस बिहारी जी सिंहासण मँ बिराजै। सामै गुलाल अबीर का थाळ भर्या धर्या। कचोळां माँय चान्दी की छोटी-छोटी पिचकार्यां ज्याँसूं केसर को जाफरानी रंग बरसै। समाजी-गायक साज-बाज लियां होरी काफी पीलू, सारंग खमाज बहार अर रसिया की चाल मँ पदां को सुरीळा गळां सूं गायन करै। अबीर गुलाल का बादळा उड़-उड़‘र सबका तन मन रंग दे। फूलां की अनवरत बौछार होय। सुर गूंजै-
हिलमिल राधा सरस बिहारी खेलै होरियां हो।
रंगीलो फाग महीनो आयो, ब्रज की नार्यां कै मन भायो।
रंगीलो केसर रंग बणायो, भरी कमोरियां हो।
राधिका राणी जी चल आई, झुंड सखियां का संग मँ ल्याई।
हो-हो होरी धूम मचाई, सांवरि-गोरियां हो।
प्रगट्यो परमानन्द रसाल, परस्पर निर्ते गोपी ग्वाल।
बणाया नारी श्री गोपाल, कुवंरि किषोरियां हो।
बिरज की रसधार मँ रंगी श्री कीरत किषोरी रासेष्वरी नै, मर्यादा को निभाव करता सरस माधुरी शरण जी, राजस्थान की धरा पर राज राजेष्वरी बणा‘र उतारी। गणगोर का तिवांर पैली सिंजारो मनावै। मैंदी, चोटी, उबटण पट भूषण का सोळा सिणगार श्री राधा साजै।
‘‘रची छै राधे थां कै महंदी नीकी।
सुन्दर कर-कमलां मँ सोवै, सुख उपजावण जी की।’’
राजस्थान मँ राधिका जी सहेल्याँ सागै घूमर घालै, फरका फँूदी लेती निरत करै। गिरिजा(गौरजा, गोरल) की आराधना करती गौरी-महेष नै रिझावै-अचळ सुहाग की याचना करै-
‘‘रंगीली राधे गोरल पूजण चालां।
धूप दीप दे करां आरती, हिलमिल घूमर-घालां।’’
‘‘हे श्री गिरिराज कुमारी, झोळी पसारती राधा थां सूँ वरदान मांगै अक जनम जनमान्तर तक श्री स्याम सुन्दर वर का रूप माँय म्हारो वरण करता रैवै’’-
‘‘जनम-जनम पति मिलै जी श्याम धन माँगाँ म्हें गोद पसार।
दीजौ गौर महेष कृपा कर, या बिणती उर धार।
‘‘सरस माधुरी’’ कहे जोर कर आज बड़ो त्योहार।
बेग मिलाय मया कर म्हाँ नै साँवळियो सरदार।‘‘
ठाकुर सरस बिहारीजी का श्री विग्रह का रूप मँ, श्री म्हाराज नै, सांवळियो सरदार मिल गयो। बरसाना धाम की जात्रा मँ, मारग श्रम सैं व्यथित आपनै श्री किषोरीजी की किरपा को साक्षात अनुभव हुयो। भक्त कवि रसखानजी एक सवैया मँ कही-‘बैठ्यो पलोटज राधिका पंायन।‘ जरूरत होबा पर ईं भांत ही अपणा अनुगतां की चरण-चंपी भी कर सकै छै। ईं वास्तै ही तो गीताजी मँ श्री ठाकुर जी अपणा मुख सैं फरमायो-‘योगक्षेम वहाम्यहम्’ ठाकुर को आसरो लियां पाछै वै भगतां का सगळा दुख-सुख को दायित्व झेल ले छै। थकावट सैं चूर -चूर हुया श्री महाराज की देही नैं, एकांत रजनी मँ कोई अणजाण किषोर सेवा कर हळकी फूल कर गयो। न खुद को नांव ठीक-ठीक बतायो न गाँव। श्रीजी की ईं महती मया का आभारी श्री महाराज ईं किरपा प्रसाद कै बदलै, सिवाय अपणी गदगद वाणी अर आॅंसुवां के क्यूं ही नहीं कर सक्या।
श्री सरस माधुरी सरणजी का आध्यात्मिक उत्कर्ष मँ वां का दीक्षा गुरु  श्री बलदेवदासजी म्हाराज को मारग निर्देष भौत मददगार रह्यौ। जैपर का श्री सरस निकुंज मँ श्री शुक संप्रदाय पीठ की थरपना अर संप्रदाय-विस्तार को दायित्व मिल्यो। श्री शुक संप्रदाय सिद्धान्त चंद्रिका को प्रणयण हुयो जीं मँ सारी सेवा प्रणाली अर विधि विधान अंकित छै। गुरु आग्या को मान राखता श्री म्हाराज अपणी षिष्य-श्रंखला चलाई। अपणी सरणागति मँ लेबा सैं पैली, ठोक-बजा‘र वै बिसवास, निष्ठा, सेवा-परायणता अर चिŸा सुद्धि आद को परीक्षण करता। कसौटी पर खरो उतरयां पाछै वे अपणा परिकर मँ सामिल करता।
श्री म्हाराज का अनेक समरपित षिष्यां का दरसण करबा को सौभाग, यां लैणां का लिखारा नै भी अपणा बाळपणां मँ मिल्यौ। षिष्यां का सिरमौर श्री रसिक माधुरी सरणजी म्हाराज की भौत अनुकंपा मिली। श्री जुगल माधुरी शरणजी, मास्टर गंगा बख्शजी, दामोदरजी पटवारी, मदन मोहनजी तोषणीवाल, उŸामचन्दजी नांगळिया, रामनारायणजी ठेकादार आद संप्रदाय की सेवा मँ खूब योगदान दियो। तुळसी बाईजी को बखाण जरूरी छै। मास्टर मूलचंदजी रूप माधुरी शरणजी, प्रेमसुंदर बाईजी अर जगन्नाथ दासजी पाछै जातां विरक्त बानो लियो। भाटियां हाळा बाईजी तो निकुंज सेवा मँ सरवस वार दियो। इसलाम का अनुयायी सनम सा‘ब, दीक्षा प्राप्त कर कंठी तिलक धारण कर्या।
जैपर मँ रासमंडली, दीनानाथजी का मिंदर मँ, गठित कराबा को जस म्हाराज नै ई छै। ईं भांत जैपर का आध्यात्मिक, सांस्कृतिक अर धार्मिक वातावरण प्रसार मँ म्हाराजजी को लुंठो योगदान रह्यो।
सरस माधुरी शरण जी श्रावण कृष्णा 30, संवत 1912 विक्रमी नै अवतरित हुया। सारी उमर बीं उळझण माँय उळझ्या रह्या जो वांका इष्ट श्री राधा अर श्री सरस बिहारी सरकार नै आप नै भी उळझा राख्या छा। एक प्राण, एक देही, एक मन अर जळ की तरंग ज्यूं एकात्म छै। या जुगल जोड़ी तो रस को समन्दर छै जीं मँ सखी स्वरूप को बरण कर‘र पाणी की माछळी ज्यूं अवगाहन क्रयौ जाय छै।
संवत 1983 विक्रमी की मंगसर सुदी 14 कै दिन श्री सरस माधुरी शरणजी अपणी रस स्थळी श्री सरस निकुंज नँ त्याग‘र लीला धाम माँय परवेस कर्यौ। ‘सखी-वपु धारण कर‘र प्यारी सरस माधुरी सखी पिया कै देस गई।’’ या अवधारणा राखता वांका पटुषिष्य स्व. श्री जुगल माधुरी शरण जी अपणा एक पद की छाप मँ लिख्यौ-
‘‘मंगसिर शुक्ला, तिथि चवदस छै अति अभिरामिनी।
नित्त परिकर मँ गई, हरषित ‘जुगल‘ मन भावनी।
संवत त्रासी (1983 विक्रमी) सुख रासी सरस

                      बिहारीषरण पारीक
                      61, माधव नगर,
                        रेलवे स्टेषन के सामने,
                        दुर्गापुरा, जयपुर-302018

सरस रस गागर


सरस रस गागर
श्री राधासरस विहारिणै नमः

          पद  पंकज श्री  सरस के, वंदनीय  नमनीय ।
 पद रचना श्री सरस की, मृदु, मंजुल कमनीय ।।

गुलाबी नगरी जैपुर का सुभाष चैक सैं पैलो रस्तो छै-‘पानां को दरीबो’। दरीबो अर्थात पान पत्तां की बिक्री-खरीद को स्थान। म्हाराजा सवाई जयसिंह का मुसायब विद्याधर का नियोजित जैपुर मँ या ठौर कदे पान पत्तां की मण्डी रही होली पण अब तो पाँच चैरावंा तलक कुल पाँच दुकान भी पनवाड्यां की नहीं छै। पान पत्ता, सुपारी सुंघणी को सब कारोबार अब रामगंज बजार की थोड़ी घणी दुकानां मँ होय छै। पण पानां को दरीबो अब भी नामजादीक छै, बीच बस्ती मँ निर्मित श्री सरस निकुँज धाम की विसाल अट्टालिका की वजै सूं, जठै रात दिन भक्तिगान अर संगीत की सुर लहर्यां प्रवाहित होती रवै छै।
ऊँचा स्तर का भक्त कवि महाराज सरस माधुरी शरण जी ईं श्री सरस निकुँज मँ नवीन ठाकुर कुंज की थरपना बैषाख कृष्णा अमावस संवत 1981 विक्रमी कै दिन करी। बैषाख कृष्णा अमावस वांका परम आराध्य, श्रीमद्भागवत महापुराण का गायक श्री शुक मुनिराज को जयंती दिवस भी छै। वेद व्यास द्वैपायन का सपूत आचार्य श्री शुकदेव मुनिराज का नाम पर ई ईं अध्यात्म पंथ को नाम श्री षुक सम्प्रदाय पड्यो। सगुण भक्तिमार्ग का श्री कृष्णानुरागी वैष्णवां की हार्दिक आस्था अर प्रबल श्रद्धा को ठिकाणो छै ‘श्री सरस निकुँज’। चिन्मय रस सरूप श्री कृष्ण को दिव्य श्री विग्रह अठै बिराजबा सूं श्री सरस निकुँज दिव्य अणु परमाणु सूं मण्डित रवै छै। अठै श्री राधाकृष्ण का उपासक  भक्त भ्रमर रात दिन नाम को गुंजार करै छै। बरस भर होता रैबाळा परब-उच्छबां मँ हिस्सादारी करता दूरा-दूरा सूं सम्प्रदाय का अनुयायी अठै आता रवै छै।
सरस माधुरी शरणजी को जनम हुयौ मध्य प्रदेस का मन्दसोर मँ। पालण-पोषण हुयौ अलवर जिला का बहादुर पुर मँ अर रचना-स्थल, कर्म-स्थली छी जैपुर। जैपुर राज का गिराई (पुलिस) महकमा माँय तैनात रह्या। वकालत करी अर आचार्य श्री षुकदेव अर अलवर का डहरा गाँव मँ जन्म्या आचार्य श्री श्यामचरण दास जी की सम्प्रदाय का अनुयायी रह्या। सेव्य ठाकुर श्री राधा सरस बिहारी जी की सेवा माँय गोपीभाव मँ निमग्न हुया नित्य निकुँज की मानसी सेवा की साधना करता रह्या। नाटक, पद, लीला को सिरजण कर्यौ अर गज़ल, माझ, कवित्त, सवैया, दूहा, कुण्डली, छप्पय, रोला, चैपाई आद सगळा छन्दां माँय रचना करी।
स्वयं सरस माधुरी जी अपणा व्यक्तित्व अर आस्था कै विषै माँय एक छन्द की दो पंक्तियां मँ लिख्यौ-
‘सिरी तिलक, गळ तुळसी माळा, पीताम्बर बर बानो।
सरस माधुरी स्याम राधिका, तिनके हाथ बिकानो।।’
रामचरित मानस का बालकाण्ड का आरम्भ मँ गोस्वामीजी दो न्यारी-न्यारी चौपायां मँ लिख गया-
‘भनिति विचित्र सुकवि कृत जोऊ। रामनाम बिनु सोह न सोऊ।।’
साहित्य को सिरजण करबाळा विद्वान अपणी रचना माँय जो संसारी जनां को गुणगान करै तो वाणी म्हाराणी अपणौ माथो धूण‘र पिछतावै। ‘हाय, अस्या घोर संसारी नै मैं प्रतिभा को धणी क्यूं बणायो।’ वाणी की सारथकता तो तदी छै जद छुद्र संसारी लोगां का किरत बखाण की ठौर अध्यात्म विषै पर साहित्य सिरज्यौ जाय।
‘कीन्हें प्राकृत जन गुणगाना। सिर धुनि गिरा लगति पछताना।।
सरस माधुरी शरणजी ईं सिद्धान्त को अच्छर-अच्छर निभाव कर्यौ। उर्दू, ब्रजवाणी, खड़ीबोली अर राजस्थानी माँय विपुल साहित्य रच्यौ। वांकी पद्य रचना श्री सरस सागर नाम सूं तीन भागां मँाय और भी कुछ ग्रंथां सहित प्रकाषित हुई पण वांकी गौरवषाली लेखनी तुलसी दासजी द्वारा थरपी गई ईं विषै की मर्यादा को कदेई उल्लंघन नहीं कर्यौ। अपणा इष्ट ठाकुर श्री राधा सरस बिहारीजी, सम्प्रदाय का आचार्यां का गुणानवाद अर, श्री राघवेन्द्र सरकार, श्री गौरांग महाप्रभु, स्वामी दादू दयाल आद की जनम बधायां तथा इस्याई अन्य वण्र्य विषयां कै सिवाय वै आपकी महताऊ कलम की नोंक स्याही माँय नहीं डुबोई। अठै तांईं कै वै अपणी वाणी का आरम्भ मँ औपचारिक विनायक-वन्दना अक सुरसती-सिमरण भी नहीं कर्या। आं की ठौर लिख्यौ-
‘श्री गुरु सबविधि पूरण काम।
चार पदारथ देत दयानिधि, दानी दम्पति नाम।
रसिकन को दें पे्रम सुधारस, निज वृन्दाबन धाम।
‘सरस माधुरी’ कृपा गुरुन की, दरसे श्यामा श्याम।‘
समालोचना की दीठ सूं सरस माधुरी षरणजी का काव्य को हाल तक विषेष मूल्यांकन नहीं हुयो। ग्रंथां की प्रस्तावना माँय तत्कालीन मूर्धन्य कतिपय विद्वान क्यूं लिख्यौ तो क्यूं वां का अनुयायी भक्तजन श्रद्धा विगलित हुया भौत थोड़ो लिख्यौ पण अनेक भासा मँ तरंगित वां की काव्य मन्दाकिनी माँय ज्यौ सनान कर्यौ वो परमपावन सात्विक भावां की लहर्यां माँय उज्जवल सिणगार रस मँ सराबोर हुयौ। देस-परदेस का खूणां-खूणां मँ विराज्या रसिकां वास्तै ईं आलेख माँय चनेक छाँट उछाळी गई छै-अस्तु-
सारा म्हैल माँय फूलां की सजावट छै। फूलां का थांबा, फूलां की तिबारी, कळष कंगूरा फूलां सूं मंढ्योड़ा, नैंणां नै तिरपत करै। फूलां का ई गादी तकिया, पड़दा, पिछवाई। फूलां का मण्डप, चन्दोवा, छाजा, गोखा, लटकण अर फूलां की ई छावण। प्रिया प्रीतम का चन्द्रिका मुकट, बाजूबन्द, कंगण सब फूलां का। गळा मँ सुरभित फूलां का हार। बंसी पर फूल, प्रियाजी का सीसफूल मै तो पैली सूं ई फूल नाम धर्यौ छै। सेज पुष्पां की, जळझारी माँय केवड़ा को सुवासित जळ अर बीं को गळो भी फूल माळा सूं अच्छादित। कोई सखी फूलां की पूतळी बणी फूली-फूली निरत करै; कोई पुष्प मंडित साज बजावै अर अनेक सखी-सहेली अनवरत फूलां की बौछारां बरसावै‘क उच्छब मण्डप को सगळो आँगणो फूलां सैं पट जावै। जुगल सरकार सागै नरतक्यां निरत करै तो वांका औढ़णा-लहँगा फूल-फूल जावै अर सरस माधुरीजी की रचना नै रागिणी आप ई मूर्तिमान हुई राग माँड मँ गावै-
ए मा ए, राधेस्याम सुजान फूल-तन भूषण साजै ए।
फूल महल मँ राजै दम्पति, सखियन जीवन प्राण।
फूल रही फुलवारी सनमुख, अति सोभा की खान।
                     मनौं रितुराज विराजै ए।

पावस रुत की हरियाळी मावस आगई। तन-मन सनेह सूं सराबोर हुया च्यारूँ मेर हरियाळी-ई-हरियाळी। पुरवाई चालै, मंदरी फुहारां बरस-बरस असल मँ ई जड़-चेतन  नै रसमय बणा दे छै। आँबर मँ काळी घटा ऊमड़ै घूमड़ै। मोर चकोर बोल रह्या। आज सिंजारो; काल श्रावणी तीज। सरस माधुरी शरण जी का ठाकुर श्री राधा सरस बिहारी जी अपणा ई स्वरूप श्री राधा गोविंद की राजधानी जैपुर माँय बिराजै। राजस्थान माँय बस्या छै तो सगळा तीज तिंवार राजस्थान की परम्परा मुजब ई मनायां सरै।
‘देखो री, सिंजारो प्यारो अति सज्यौ।
सज्यौ री स्यामा जू के अंग।’
राधा म्हाराणी नख सूं षिख सिणगार कर्या छै। कर-कँवल, पद पंकज मँ मैंदी का माँडणा। माथा पर सीसफूल, चंद्रिका। ललाट पर टीडीभळको आंगळ्यां मँ बींटी, छल्ला मंूदड़ी बंक भृकुटी, आँख माँय अंजन, नासिका मँ नथ, कमर पर बळ खाती नागण सी बेणी। हिया पर रतन-हार। मनमोवणी मुळक ज्यौ रति कामदेव की छवि नै भी फीकी कर दे। श्री राधा अपणा प्रियतम नै अरपित करबा वास्तेै अपणा हाथां सूं पान का बिडला त्यार करै अर समाज की अष्ट सखी को गायण होय-
‘‘सलौनी लागै आज सिंजारा री रैण।
मदन मोहन म्हैलां मँ आसी, अति सुन्दर सुख दैण।
उठ आदर कर कण्ठ लगावां, छबि निरखां भर नैण।
रंगभीणी सेजां रंग माणां, तन मन  उपजै चैन।’’
सिंजारो फेर चैत मास मँ आसी। हाल तो ‘तीज तिवांरां बावड़ी, ले डूबी गणगौर’’ कै मुजब तिवांरां को सिरी गणेस छै। सरस माधुरी जी का ठाकुर दम्पति भी तीज को तिवांर मनावै-
‘‘परम प्यारौ तीजां रो त्यौंहार।
हिलमिल हींदो घालां हेली सघन कदम की डार।
सरस बिहारी झमक झुलावां, गावां राग मलार।’’
फेर सब सखी परिकर नै तीज की सवारी देखबा को चाव होय-
‘‘सहेल्यौं म्हारी निरखो नै तीज पियारी।
सज सिणगार पहर पट भूषण, हिलमिल चलस्यां सारी।
अचल सुहाग भाग दिन दूणौं, पावां रीझ अपारी।
रंग हिंडोरै रंग सूं झूलां, संग सहेल्यां सारी।
‘सरस माधुरी सावण सरसै, घन बरसै जलधारी।’’
ठाकुर श्री सरस बिहारी जी प्रियाजी का रंग म्हैलां मँ पधार्या। मिजमानी मनवारां कबूली-
      ‘‘आया छै म्हां कै सरस बिहारी पावणा।
नाना विध पकवान मिठाई, रुचि-रुचि भोग लगावणा।
अचवन कर आरोगो बीरी, लागो परम सुहावणा।
‘सरस माधुरी’ सेजां पोढ़ो, रंग रस मौज मनावणा।
सावण-भादवा का हरियल दिनां मँ बरसाना की गोपी-ग्वालणां नन्दगांव का गबरू जवान गुवाळ गोपाल नै याद करै। गहवर बन, ललिता कुण्ड, साँकरी खोर अर मोरकुटी यादां माँय आय डेरा कर ले अर सरस माधुरी शरणजी को कल्पनासील मन झट सूं पद की रचना करदे-
‘‘हो जी हो म्हारा कुंज बिहारी, बरसाना का बागां मँ बोलै छै मोर।
तोता मैना और पपैया कोयल कर रहि शोर।
फूल रही फुलवारी क्यारी, गुंजत हैं जहं भांैर।’’
कीर, कोयल, मैना अर पपैया शोर मचावै। फूली-फूली फूलबाड्यां माँय मधुप गुंजार करै। गहवरबन की भाँत-भाँत की बेलड्यां माँय सारस हँस अर चकोर बिचरै। ललता कुण्ड घणांै सोवणो जठै पाणी की ल्हैरां उछाळा लेवै। साँकरी खोर जिस्या रमणीक स्थल पर रासेस्वरी राधिका सहेल्यां सागै रम रही छै। ’हे श्याम सुन्दर आप इण ठौरां माँऊ कोई सी ठौर पधारो अर बठै नहीं आओ तो मोर कुटी मँ विराज‘र दरसण द्यो।’
असल मँाय भक्त कवि सरस माधुरी शरणजी श्री राधाकृष्ण की नित्त निकुँज लीला का उपासक रह्या। शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य अर श्रृंगार भावां कै रूप मँ चिन्तकगण भक्ति का भेद कर्या। पैलड़ी च्यार विध की उपासना माँय भक्त को आपको भी स्वारथ होय छै पण माधुर्य भाव की भक्ति आं सब सूं निराळी अर अनोखी मानी जाय। माधुर्य भक्ति माँय केवल आनन्द स्वरूप दम्पति को विषुद्ध तत्सुखमयी पे्रम विलास होय छै। ईं माधुर्य नै ई उन्नत निकुँज रस, नित्त लीला अर वृन्दाबन धाम रस का नाम सूं भक्त कविगण गायौ छै। स्वयं भक्त की ईं रस माँय न कोई उपासना न कोई आराधना। भक्त नै खुद की खातर क्र्यूं इं नहीं चाये। आराध्य की सेवकाई मँ विसवास राखै। सरस माधुरी जी का सेव्य ठाकुर्र इं माधुर्य रस का पुंजीभूत स्वरूप, नित्त नवीन उन्नति किषोर श्री राधा सरस बिहारी जी की जोड़ी छै। न एकला लाल जी अर न एकली लडै़ती बां का उपास्य रह्या। ईं जोड़ी को परस्पर सुख ई बां को उपासना-रस रह्यौ। ज्यूं दौन्यूं नैंणा मांय कुणसी आँख को ज्यादा महत्व; दाँई अर बाँई आँख समान रूप सूं प्रिय। आदमी कोई सा नेत्र नै नहीं गमाणौ चावै।
ठाकुरजी की ब्रज अर निकुँज दोन्यूं लीला ई शुद्ध उज्ज्वळ प्रेम की सुभाविक लीला छै। फरक इतनो ई बतायो‘क ब्रजलीला माँय लालजी विषय अर प्रिया जी आश्रय छै। अर निकुँज वन माँय प्रियाजी विषय अर लालजी आश्रय होय छै। जिसी लीला उस्यौ ई सखा सखी को परिकर अर उस्यौ ई धाम। असल माँय दोन्यूं तरंै की लीला ई गुणां सूं अतीत अर तर्कां सूं परै छै।
पाँच दिनां पैल्यां दसरावो अर पन्द्रा दिनां पाछै दीवाळी। सरस निकुँज माँय दोन्यू उच्छब ई जोरदार ढंग सूं मनाया जावै छै। आँ कै बिचै ई आवै छै- ‘पून्यू तो आसोजी पून्यू’ अर्थात् शरद् पूर्णिमा। महारास रचाबा को महताऊ दिवस। श्रीमद्भागवत महापुराण को दषम स्कन्ध सारा रस -रहस्य को सार तत्व छै। श्री कृष्णानुरागी वैष्णवां को परम आधार छै। रास पंचाध्यायी मँ रासलीला को आरंभ, श्रीकृष्ण को अन्तरधान होबो, ब्रज वधुवां की बिरह दसा, गोपिका गीत अर रासेष्वर को फेरूं परगट हो‘र गोप ललनावां नै तसल्ली देणौ। या ई तो छै  रास पंचाध्यायी। अष्टछाप का कवि नन्ददास ईं पंचाध्यायी नै ब्रजवाणी माँय लिखी, सूरदास जी पदां मँ सार लिख्यौ अर खड़ी बोली, राजस्थानी का मोकळा कवि अपणी-अपणी मति मुजब लिखी। सरस माधुरी शरणजी श्री कृष्ण का वेणुवादन अर रास सम्बन्धी और-और लीलावां पर खड़ी बोली अर ब्रजवाणी माँय सौ कै नेड़ै पद लिख्या। जैपुरी गाळी की धुन मँ बंध्यौ पद बखाण जोग लागै छै-
‘‘मोहन बांसुरी बजावै, सुणो सब नागरी ए।
तानां मीठी-मीठी गावै, थाँ नै ले-ले नाम बुलावै।
रसियो बन मँ रास रचावै, रूप उजागरी ए।
दियौ जमना हाता, बर म्हाँ नै, मिलस्यां सरद रैन मँ थाँ नै।
चालौ सगळी छानै-छानै लैराँ लागरी ए।
सुणल्यौ सरस माधुरी बात, धन-धन -धन-धन छै या रात ।
पुलकित प्रेम माँय छै गात, गावौ रागरी ए।
सरस माधुरी शरण जी का भक्ति काव्य संसार की अनोखी रचना छै- बना बनी गाळ्यां अर सीठणा। अष्टयाम लीला उच्छब माँय श्री प्रिया जी का परिकर की अष्ट सहेली, ललिता, विषाखा, चित्रा, श्रीदेवी, तुंगविद्या, रंगदेवी, इन्दुलेखा अर चम्पकलता को मनोरथ हुयो‘क श्री प्रिया-प्रीतम को ब्याव उच्छव विनोद मनायो जाय। सगळा सरंजाम भेळा कर्या। तोरण थांम चँवरी कांकण डोरा लता पत्ता पत्र पुष्प, बाँदरवाळ यथा स्थान सोभा पाई। प्रिया-प्रीतम की भाँवरी (फेरां की रस्म) हुई अर वर-वधूका रूप मांय विराज्या ठाकुर जी कै सामै समाज करबाळां का गायण वास्तै सरस माधुरी शरण जी पद रचना करी। नीचै दियोड़ा दोन्यूं विलक्षण पदां को आधार राग विलम्बित मांड ई छै। ईं राग की सिरजणा भी राजस्थान मांय ई हुई अर अठै ईं राग नै गाबाळा श्रेष्ठ गायक-गायिका हुया।
बना-
सैंयो ए म्हारी, नन्द नन्दन ब्रजचन्द बनो म्हांने बाळौ लागै ए।
सीस सेवरो सुन्दर सोवै कलंगी झोकादार।
कानन कुण्डल जगमग ज्योती, जिनकी अजब बहार,
                              निरख नैंणा अनुरागै ए।
नख-सिख सोहन विष्व विमोहन सखियन जीवन-प्राण।
‘सरस माधुरी’ मगन हुईं सब, लखि प्रीतम रसखान।
                        विरह दुख सबही भागै ए।
नया नकोर जरी गोटा का बेस मांय सजी अवगुंठनवती श्री राधाजी, वर रूप मँ विराज्या श्री कृष्ण कै पाष्र्व मांय विराजी गायन सुण‘र जाणै आप खुद ई अपना राषि-राषि रूप  पै मुगध हुई-
बनी-
बनी म्हांनैं प्यारी लागै ए, ए माए कीरत राजकुवांरि बनी म्हांनै........
भानराय की लाड़ली जी, सखियन की सरदार।
श्रीदामा की भैंण छै जी, जीवण प्राणाधार। बनी म्हांनै................
धन्य मुहूरत धन घड़ी जी, धन तिथि अर धन वार।
भांवरि होवै जुगल की जी, प्रगटै पे्रम अपार। बनी म्हांनै........
कुंज महल निज टहल की जी, प्रापत होय इनाम।
‘सरस माधुरी’ म्हैल मँ जी, सेवै श्यामा-ष्याम। बनी म्हांनै ........
भाव कोई सो होय, रस किस्यौ भी होय, नित्त निकुंज लीला का गायक अपणा इष्ट का सुख मांय ही आनन्द पावै। इस्या अनुरागी जनां को बखाण करता ई श्रीमद्भागवत कथा का सिरजक वेदव्यासजी श्री कृष्ण का स्वयं का मुखारविन्द सैं उद्धव जी ने खवायौ-
‘‘उद्धव जी!संसार नै तो म्हारौ वो भगत ई पावन करै छै जीं की वाणी गदगद हो जाय। जीं को चित्त (बरफ ज्यूं) पिघळ जाय। ज्यो म्हारा हेत मँ कदे रोवै, कदे हँसै अर लाज -हया त्याग‘र कदे ऊँचा सुरां मँ गावै। (अपणी मौज माँय उछळै-कूदै) निरत करै।’’
सरस माधुरी शरण जी की जीवनी का लिखारां मुजब उपरोक्त सगळा लक्षणं वां का चरित अर दिनचर्या का सुभाविक अंग हो गया छा। आप खुद राग-रागनी अर सुरांका जाणकार होबा सूं समाज माँय तानपूरो ले‘र खुद गाता गाता भावां माँय गोता लगाता। खुद रोता अर श्रोता मण्डली का हिया विगलित कर‘र वां नैं भी प्रेम विरह का सागर माँय डुबकी लगवाता। नित्त बिहांर करबाळी श्याम सुन्दर अर श्री राधा की जोड़ी वास्तै सरस माधुरी शरण जी लिख्यौ छै असी जोड़ी त्रिभुवन माँय हेर्यां भी नहीं मिलै-
‘‘सलोणा लागै नवल किषोर किषोरी।
सुन्दर ष्याम काम मद मोचन, सुमुखि सुलोचनि गोरी।’’
त्रिभुवन पति, ब्रजेष्वर हुया ब्याव मण्डप माँय बृषभान जी का रावळा की लुगायां सूं गाळ्यां सुणै-
‘बनाजी थांनै गाळी रंगीली गावां।
भानकुवँरि भरतार भला थे, लख लोचन सुख पावां।
जसमत समधण जस की पूरी, ज्यां को सुजस सुणावां।
वा गोरी थे स्याम प्रगट हुया, समझ सोच सरमावां।‘

‘बनाजी, थांको भाग जाग्यायो राधाजी कै साथ फेरा पडबा सैं थां पर लाग्यो दोस दूर हो गयो। राषि-राषि रूप की धिराणी राधाजी का चरणां मँ थे अनुराग राखज्यो।‘
प्रियाजी का रंग म्हैल मँ बिराज्या ठाकुर श्री सरस बिहारी जी ऊँघता अळसाबा लाग्या। जंभाई आय। कँवळ नैंण मुँद-मुँद जावै। श्री अंग षिथिल हो रह्या। या दसा देखता प्रियाजी मुळकै। अपणी भावदीठ सैं या लीला देखता सरस माधुरी सरण जी को प्रेम पग्यो चित लेखनी नै पद लिखबा को निर्देस दियो-
‘‘बनाजी थांका नैंणा छै रतनारा।
झपकै खुलै नींद बस पल-पल, लागै छै अति प्यारा।
रंग अनंग भर्यौ तिण मांईं, आळस घूम घुमारा।
‘सरस माधुरी’ रस मँ छाक्या, प्रेम माँय मतवारा।’’
भविष्य पुराण खोल‘र देखो। हर तिथि नै कोई न कोई परब, पूजा, तिवांर कै उच्छब। राजस्थान जूना राजा रजवाड़ां को मुलक। सातबार, नौ तिवांर को देस। परम्परा कै मुजब सगळा लोग तिवांर मानै-मनावै पण भक्तां को तो सरबस ई आराध्य नै समरपित। वार-तिवांर, आमोद प्रमोद सब ठाकुर जी का श्री विग्रह कै निमित्त वांकी हाजरी बजाताँ ही बीतै। स्याळा का दिनां मँ पौष खीचड़ा, दसरावा दीवाळी सबका न्यारा-न्यारा लाड़। दीवाळी पाछै, अन्नकूट का बृहद आयोजन! सरस माधुरी शरण जी न्यारी-न्यारी भाषावां मँ पद रचना कर‘र ठाकुर जी नै रिझाया, लाड़-लड़ाया। बसन्त का रहस्यवादी गीत लिख्या तो होळी का लिख्या रस-कळस छळकाता।
फागणिया पोसाक धारण कर्यां ठाकुर श्री राधा सरस बिहारी जी सिंहासण मँ बिराजै। सामै गुलाल अबीर का थाळ भर्या धर्या। कचोळां माँय चान्दी की छोटी-छोटी पिचकार्यां ज्याँसूं केसर को जाफरानी रंग बरसै। समाजी-गायक साज-बाज लियां होरी काफी पीलू, सारंग खमाज बहार अर रसिया की चाल मँ पदां को सुरीळा गळां सूं गायन करै। अबीर गुलाल का बादळा उड़-उड़‘र सबका तन मन रंग दे। फूलां की अनवरत बौछार होय। सुर गूंजै-
हिलमिल राधा सरस बिहारी खेलै होरियां हो।
रंगीलो फाग महीनो आयो, ब्रज की नार्यां कै मन भायो।
रंगीलो केसर रंग बणायो, भरी कमोरियां हो।
राधिका राणी जी चल आई, झुंड सखियां का संग मँ ल्याई।
हो-हो होरी धूम मचाई, सांवरि-गोरियां हो।
प्रगट्यो परमानन्द रसाल, परस्पर निर्ते गोपी ग्वाल।
बणाया नारी श्री गोपाल, कुवंरि किषोरियां हो।
बिरज की रसधार मँ रंगी श्री कीरत किषोरी रासेष्वरी नै, मर्यादा को निभाव करता सरस माधुरी शरण जी, राजस्थान की धरा पर राज राजेष्वरी बणा‘र उतारी। गणगोर का तिवांर पैली सिंजारो मनावै। मैंदी, चोटी, उबटण पट भूषण का सोळा सिणगार श्री राधा साजै।
‘‘रची छै राधे थां कै महंदी नीकी।
सुन्दर कर-कमलां मँ सोवै, सुख उपजावण जी की।’’
राजस्थान मँ राधिका जी सहेल्याँ सागै घूमर घालै, फरका फँूदी लेती निरत करै। गिरिजा(गौरजा, गोरल) की आराधना करती गौरी-महेष नै रिझावै-अचळ सुहाग की याचना करै-
‘‘रंगीली राधे गोरल पूजण चालां।
धूप दीप दे करां आरती, हिलमिल घूमर-घालां।’’
‘‘हे श्री गिरिराज कुमारी, झोळी पसारती राधा थां सूँ वरदान मांगै अक जनम जनमान्तर तक श्री स्याम सुन्दर वर का रूप माँय म्हारो वरण करता रैवै’’-
‘‘जनम-जनम पति मिलै जी श्याम धन माँगाँ म्हें गोद पसार।
दीजौ गौर महेष कृपा कर, या बिणती उर धार।
‘‘सरस माधुरी’’ कहे जोर कर आज बड़ो त्योहार।
बेग मिलाय मया कर म्हाँ नै साँवळियो सरदार।‘‘
ठाकुर सरस बिहारीजी का श्री विग्रह का रूप मँ, श्री म्हाराज नै, सांवळियो सरदार मिल गयो। बरसाना धाम की जात्रा मँ, मारग श्रम सैं व्यथित आपनै श्री किषोरीजी की किरपा को साक्षात अनुभव हुयो। भक्त कवि रसखानजी एक सवैया मँ कही-‘बैठ्यो पलोटज राधिका पंायन।‘ जरूरत होबा पर ईं भांत ही अपणा अनुगतां की चरण-चंपी भी कर सकै छै। ईं वास्तै ही तो गीताजी मँ श्री ठाकुर जी अपणा मुख सैं फरमायो-‘योगक्षेम वहाम्यहम्’ ठाकुर को आसरो लियां पाछै वै भगतां का सगळा दुख-सुख को दायित्व झेल ले छै। थकावट सैं चूर -चूर हुया श्री महाराज की देही नैं, एकांत रजनी मँ कोई अणजाण किषोर सेवा कर हळकी फूल कर गयो। न खुद को नांव ठीक-ठीक बतायो न गाँव। श्रीजी की ईं महती मया का आभारी श्री महाराज ईं किरपा प्रसाद कै बदलै, सिवाय अपणी गदगद वाणी अर आॅंसुवां के क्यूं ही नहीं कर सक्या।
श्री सरस माधुरी सरणजी का आध्यात्मिक उत्कर्ष मँ वां का दीक्षा गुरु  श्री बलदेवदासजी म्हाराज को मारग निर्देष भौत मददगार रह्यौ। जैपर का श्री सरस निकुंज मँ श्री शुक संप्रदाय पीठ की थरपना अर संप्रदाय-विस्तार को दायित्व मिल्यो। श्री शुक संप्रदाय सिद्धान्त चंद्रिका को प्रणयण हुयो जीं मँ सारी सेवा प्रणाली अर विधि विधान अंकित छै। गुरु आग्या को मान राखता श्री म्हाराज अपणी षिष्य-श्रंखला चलाई। अपणी सरणागति मँ लेबा सैं पैली, ठोक-बजा‘र वै बिसवास, निष्ठा, सेवा-परायणता अर चिŸा सुद्धि आद को परीक्षण करता। कसौटी पर खरो उतरयां पाछै वे अपणा परिकर मँ सामिल करता।
श्री म्हाराज का अनेक समरपित षिष्यां का दरसण करबा को सौभाग, यां लैणां का लिखारा नै भी अपणा बाळपणां मँ मिल्यौ। षिष्यां का सिरमौर श्री रसिक माधुरी सरणजी म्हाराज की भौत अनुकंपा मिली। श्री जुगल माधुरी शरणजी, मास्टर गंगा बख्शजी, दामोदरजी पटवारी, मदन मोहनजी तोषणीवाल, उŸामचन्दजी नांगळिया, रामनारायणजी ठेकादार आद संप्रदाय की सेवा मँ खूब योगदान दियो। तुळसी बाईजी को बखाण जरूरी छै। मास्टर मूलचंदजी रूप माधुरी शरणजी, प्रेमसुंदर बाईजी अर जगन्नाथ दासजी पाछै जातां विरक्त बानो लियो। भाटियां हाळा बाईजी तो निकुंज सेवा मँ सरवस वार दियो। इसलाम का अनुयायी सनम सा‘ब, दीक्षा प्राप्त कर कंठी तिलक धारण कर्या।
जैपर मँ रासमंडली, दीनानाथजी का मिंदर मँ, गठित कराबा को जस म्हाराज नै ई छै। ईं भांत जैपर का आध्यात्मिक, सांस्कृतिक अर धार्मिक वातावरण प्रसार मँ म्हाराजजी को लुंठो योगदान रह्यो।
सरस माधुरी शरण जी श्रावण कृष्णा 30, संवत 1912 विक्रमी नै अवतरित हुया। सारी उमर बीं उळझण माँय उळझ्या रह्या जो वांका इष्ट श्री राधा अर श्री सरस बिहारी सरकार नै आप नै भी उळझा राख्या छा। एक प्राण, एक देही, एक मन अर जळ की तरंग ज्यूं एकात्म छै। या जुगल जोड़ी तो रस को समन्दर छै जीं मँ सखी स्वरूप को बरण कर‘र पाणी की माछळी ज्यूं अवगाहन क्रयौ जाय छै।
संवत 1983 विक्रमी की मंगसर सुदी 14 कै दिन श्री सरस माधुरी शरणजी अपणी रस स्थळी श्री सरस निकुंज नँ त्याग‘र लीला धाम माँय परवेस कर्यौ। ‘सखी-वपु धारण कर‘र प्यारी सरस माधुरी सखी पिया कै देस गई।’’ या अवधारणा राखता वांका पटुषिष्य स्व. श्री जुगल माधुरी शरण जी अपणा एक पद की छाप मँ लिख्यौ-
‘‘मंगसिर शुक्ला, तिथि चवदस छै अति अभिरामिनी।
नित्त परिकर मँ गई, हरषित ‘जुगल‘ मन भावनी।
संवत त्रासी (1983 विक्रमी) सुख रासी सरस

                      बिहारीषरण पारीक
                      61, माधव नगर,
                        रेलवे स्टेषन के सामने,
                        दुर्गापुरा, जयपुर-302018